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बिहार में कांग्रेस का दलित कार्ड: राहुल गांधी के सामने क्या चुनौतियां, बदलेगा 20 साल का वोटिंग पैटर्न?

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पटना: बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, और कांग्रेस पूरी तरह से एक्टिव मोड में नजर आ रही है। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी बीते चार महीनों में चौथी बार बिहार का दौरा कर चुके हैं। इस बार उन्होंने दरभंगा के अंबेडकर छात्रावास में छात्रों से संवाद किया और पटना में सामाजिक सुधारक ज्योतिबा फुले पर बनी फिल्म ‘फुले’ देखी। इस दौरान उन्होंने तीन प्रमुख मांगें उठाईं: 1-देश में जातीय जनगणना, 2- निजी क्षेत्रों में ओबीसी, ईबीसी, एससी और एसटी के लिए आरक्षण, 3- SC-ST सब प्लान के तहत फंडिंग की गारंटी। कांग्रेस ने इसके जरिए एक बात साफ कर दी कि वो बिहार में दलितों-पिछड़ों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रही है। दलित वोट बैंक की ओर कांग्रेस की वापसी की कोशिशएक समय था जब बिहार में दलित, ब्राह्मण और अल्पसंख्यक कांग्रेस के मजबूत वोट बैंक माने जाते थे। लेकिन 1990 के दशक, खासकर 1995 के बाद से कांग्रेस का यह आधार कमजोर होता गया। मंडल राजनीति और क्षेत्रीय दलों के उभार ने कांग्रेस को राज्य की राजनीति में हाशिए पर धकेल दिया। अब राहुल गांधी दलित समुदाय को फिर से जोड़ने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। सांस्कृतिक संकेतों के जरिए जुड़ाव की कोशिशराहुल गांधी का अंबेडकर छात्रावास का दौरा और ‘फुले’ फिल्म देखना केवल प्रतीकात्मक कदम नहीं हैं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं। कांग्रेस दिखाना चाह रही है कि वह सामाजिक न्याय के मुद्दों पर गंभीर है और दलित-पिछड़ा वर्ग उसके एजेंडे का अहम हिस्सा है। संगठनात्मक स्तर पर बदलावदलित समुदाय को साधने के लिए कांग्रेस ने संगठनात्मक स्तर पर भी महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं। सवर्ण नेता अखिलेश प्रसाद सिंह की जगह दलित नेता राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, जबकि सुशील पासी को प्रदेश सह प्रभारी की जिम्मेदारी दी गई। फरवरी में पार्टी ने प्रसिद्ध पासी नेता जगलाल चौधरी की जयंती भी पहली बार मनाई, जिसमें राहुल गांधी खुद शामिल हुए। बिहार की राजनीति में दलितों की निर्णायक भूमिकाबिहार में दलितों की आबादी करीब 19% है, जो किसी भी राजनीतिक समीकरण को प्रभावित कर सकती है। 2005 में नीतीश कुमार की सरकार ने दलितों को ‘महादलित’ श्रेणी में बांटकर उन्हें अपने पक्ष में मोड़ने की सफल कोशिश की थी। इस वर्ग में अब पासवान जाति समेत 22 जातियां शामिल हैं। दलितों की इस राजनीतिक अहमियत को देखते हुए कांग्रेस अब उन्हें अपने पाले में लाने की रणनीति बना रही है। कांग्रेस का गिरता वोट शेयर: एक चिंताजनक ट्रेंडबिहार में कांग्रेस का वोट शेयर पिछले तीन दशकों में लगातार गिरा है। राहुल गांधी के सामने इसमें सुधार करना सबसे बड़ी चुनौती है।
  • 1990: 24.78%
  • 1995: 16.30%
  • 2000: 11.06%
  • 2005: 6.09%
  • 2010: 8.37%
  • 2015: 6.7%
  • 2020: 9.48%
यह आंकड़े साफ तौर पर दिखाते हैं कि कांग्रेस का जनाधार लगातार कमजोर हुआ है, हालांकि 2020 में थोड़ी सुधार की झलक जरूर दिखी। क्या रंग लाएगी राहुल गांधी की रणनीति?राहुल गांधी की लगातार यात्राएं, दलितों से सीधा संवाद और सामाजिक न्याय पर केंद्रित एजेंडा यह संकेत दे रहे हैं कि कांग्रेस बिहार में अपने खोए हुए आधार को वापस पाने की गंभीर कोशिश कर रही है। यदि दलित समुदाय का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस की ओर लौटता है, तो राज्य की राजनीति में बड़ा बदलाव संभव है। आगामी चुनाव नतीजे यह तय करेंगे कि राहुल गांधी की यह रणनीति कितनी प्रभावी साबित होती है, लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस इस बार पूरे दमखम के साथ मैदान में उतरेगी।
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