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Bihar Election: बिहार में क्यों फंसता है BJP का 'रथ'?

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नई दिल्ली/पटना: बिहार में मतदाता सूची विवाद और जल्द होने जा रहे विधानसभा चुनावों को देखते हुए तमाम राजनीतिक दल अपनी चुनावी रणनीतियों को अंतिम रूप देने में लगे हैं। मगर हमेशा की तरह इस बार भी प्रत्याशी जाति देखकर ही चुने जा रहे हैं।



अगड़ा बनाम पिछड़ा

आम तौर पर किसी भी चुनाव को सीधे मुकाबले के रूप में देखने का चलन रहा है। पांच साल पहले लालू प्रसाद यादव ने ऐलान किया था कि चुनावी लड़ाई अगड़ों और पिछड़ों के बीच है। BJP को उन्होंने पारंपरिक सवर्ण कुलीनों की पार्टी करार दिया था। 2024 में I.N.D.I.A. ने भी पिछड़े समूहों की वकालत करते हुए सीधे मुकाबले का संकेत दिया था। लेकिन गठबंधन और जवाबी गठबंधन का खेल बीच-बीच में इस दो ध्रुवीय नजरिए को जटिल बना देता है।



BJP का सवर्ण प्रेम

BJP के उम्मीदवारों का चयन हमेशा से ऊंची जातियों के पक्ष में झुका रहा है। 2020 में उसके कुल 74 विधायकों में से 33 सवर्ण थे। बाकी राज्यों की तरह बिहार में भी पार्टी मुस्लिम उम्मीदवार खड़े नहीं करती। मतलब यह कि बाकी बचे प्रत्याशी OBC (26) और EBC (2) से थे। इसके विपरीत JDU के 43 विधायकों में मात्र 10 ही सवर्ण थे। 22 OBC और EBC समुदायों के थे। हालांकि उनमें ज्यादातर कुर्मी (7) और यादव (4) जैसी दबंग OBC जातियों के थे।



RJD में यादव

दूसरी तरफ RJD में साफ तौर पर यादवों की प्रधानता रही है। 2020 में पार्टी ने 44 यादव प्रत्याशी खड़े किए, जिनमें से 26 जीते। BJP और JDU के उलट RJD और कांग्रेस मुस्लिम प्रत्याशी भी खड़े करती हैं। कांग्रेस में तो मुस्लिम विधायकों का अनुपात किसी भी अन्य प्रमुख दल से ज्यादा है, हालांकि बिहार के चारों प्रमुख दलों में वह सबसे छोटी है।



दबंग जातियों का जोर

साल 2000 के बाद के दौर में लालू प्रसाद यादव के कमजोर पड़ने से गैर-यादव OBC जातियों जैसे कुर्मी, कोइरी/कुशवाहा और कुछ EBC जातियों की नुमाइंदगी की गुंजाइश बनी। BJP ने भी अपने प्रत्याशियों में विविधता लाई। 2020 में इसके 28 OBC विधायकों में बनिया और यादव सहित 9 विभिन्न जातियों के थे। लेकिन चाहे BJP हो या JDU या RJD - निर्वाचित OBC विधायकों का बड़ा हिस्सा स्थानीय दबंग जातियों से ही था। EBC पर चुनाव प्रचार में भले जोर रहा हो, वास्तव में नुमाइंदगी इसे कम ही मिली। बिहार की कुल आबादी का 36 से 40 फीसदी होने के बावजूद 2020 की विधानसभा में इसकी मौजूदगी 11 फीसदी तक सीमित रही।



विविधता के बावजूद, इस पैटर्न में एक विरोधाभास है। ज्यादातर पार्टियों ने टिकट वितरण में विविधता लाई है, लेकिन इसका परिणाम बहुत समावेशी नहीं रहा है। विधानसभा में मौजूदगी रखने वाले ज्यादातर OBC समूहों के पास 5 फीसदी से भी कम सीटें हैं। इससे अंतरजातीय प्रतिस्पर्धा तेज हो गई है। डायवर्सिफिकेशन ने जातिगत विभाजन को कम करने के बजाय और बढ़ा दिया है।



अंतरजातीय प्रतिस्पर्धा

इससे यह समझना आसान हो जाता है कि BJP बिहार में हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों जैसा वर्चस्व क्यों नहीं स्थापित कर सकी। व्यापक हिंदू समर्थक आधार तैयार करने की राह में ये जातिगत विभाजन बाधा बन जाते हैं। साल 2000 के बाद से यहां किसी भी पार्टी ने 25 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल नहीं किए हैं। 2024 लोकसभा चुनाव में RJD बिहार की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन उसे 22% वोट ही मिले थे। BJP को तो कुल वोटों का पांचवां हिस्सा ही मिला।



धार्मिक ध्रुवीकरण में बाधा

जातिगत विभाजन और पिछड़ी जातियों के ध्रुवीकरण के कारण BJP हिंदुत्व के आधार पर अपना सामाजिक और चुनावी आधार तैयार नहीं कर पा रही। यह बात भी है कि हिंदुत्व का फैलाव ज्यादातर शहरी क्षेत्रों में हुआ है। यूपी इस लिहाज से ज्यादा शहरीकृत है जबकि बिहार अपेक्षाकृत ग्रामीण है। यही नहीं, उत्तर प्रदेश शुरू से सांप्रदायिक रहा है, जबकि बिहार जातीय हिंसा के लिए जाना जाता रहा है। नतीजा यह कि बिहार में स्थायी चुनावी रणनीति के तौर पर धार्मिक ध्रुवीकरण ज्यादा कारगर नहीं साबित होता।



पुराना चुनावी व्याकरण

आगामी चुनाव की बात करें तो बिहार के चुनावी व्याकरण का बुनियादी ढांचा बदलने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे। नीतीश कुमार के 2023 में करवाए गए ‘कास्ट सेंसस’ ने बिहार की राजनीति के एक आधारभूत स्तंभ के रूप में जाति को मजबूत ही किया है। बहरहाल, चुनावी नतीजों के बारे में कोई ठोस नतीजा अभी नहीं निकाला जा सकता। लेकिन एक बात निश्चित है कि कोई भी वास्तविक बदलाव वोटरों द्वारा ही लाया जा सकता है।

( जाइल्स वर्नियर्स, लेखक CERI से जुड़े रिसर्चर हैं)

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