लोक आस्था के महापर्व छठ की शनिवार, 25 अक्टूबर से शुरुआत हो गई है। नहाय-खाय और खरना के बाद सोमवार, 27 अक्टूबर को सायं कालीन अर्घ्य और मंगलवार, 28 अक्टूबर को सुबह वाले अर्घ्य के साथ इसका समापन होगा। पवित्रता का प्रतीक छठ पूजा को लेकर देशभर में श्रद्धा और उल्लास का माहौल है। हमारी फिल्म इंडस्ट्री में भी कई सितारे इस महापर्व से गहरा जुड़ाव रखते हैं। हालांकि, जब बात बिहार की परंपरा और संस्कृति की हो तो बॉलीवुड अभिनेता पंकज त्रिपाठी का नाम सबसे आगे आता है। मगध मिट्टी से निकले पंकज हर साल साबित करते हैं कि सफलता के बावजूद वे अपनी जड़ों से गहराई से जुड़े हैं। 'नवभारत टाइम्स' से खास बातचीत में पंकज त्रिपाठी ने छठ महापर्व से जुड़ी अपनी यादें और इसके अनुशासन व तपस्या का महत्व साझा किया हैं।
छठ महापर्व पर शुभकामनाएं देते हुए पंकज त्रिपाठी कहते हैं, 'मैं सभी के लिए शुभकामना देता हूं कि छठी मैया सभी के जीवन में खुशियां लाए, उनकी मनोकामना को पूरा करे। वे सभी उत्साह के साथ सपरिवार छठ पूजा में शामिल हों।
'छठ पर नए कपड़े और नए स्वेटर... याद आते हैं'
बिहार के गोपालगंज में पैदा हुए पंकज त्रिपाठी याद करते हुए कहते हैं, 'छठ से जुड़ी अनगिनत यादें हैं। हमारे गांव बेलसंड में जैसे ही छठ का पर्व आता, सर्दियों का आधिकारिक आगमन हो जाता था। एक रात पहले ही लोग कंबल और नए स्वेटर निकाल लेते थे। सुबह पूजा के समय नए कपड़े और नया स्वेटर पहनने का अलग ही उत्साह होता था। पंकज बताते हैं कि छठ असल में प्रकृति और सूर्य की उपासना का पर्व है। इसमें गन्ना, मूली, केला और कच्ची हल्दी जैसे मौसमी फल और कंदमूल प्रसाद में चढ़ाए जाते हैं। जो जिसके घर में उगता है, वही वह प्रसाद के रूप में बांटता है।'
'मेरे घर में केला होता था, तो मैं केला बांटता था'
पंकज हंसते हुए कहते हैं, 'मेरे घर में केला होता था, तो मैं केला बांटता था।' उनके मुताबिक, छठ का त्योहार सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और प्राकृतिक आभार भी है। डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा के पीछे यही भाव है कि सूर्य हैं, तभी जीवन है। दिवाली के तुरंत बाद शुरू होने वाला यह पर्व पूर्वांचल के लोगों के लिए गहरे जुड़ाव और घर वापसी की भावना लेकर आता है।
पंकज त्रिपाठी बोले- चंदे के पैसों से नाटक करते थे
अपनी अभिनय यात्रा के शुभारंभ के बारे में वे कहते हैं, 'मेरी नाटक की शुरुआत भी इसी छठ पूजा से हुई थी, क्योंकि गांव के लोग आते और चंदा देते थे। हम उन पैसों को इकट्ठा करके छठ के अगले दिन परफॉर्म किया करते थे। यही वजह है कि मेरे जीवन में कल्चरल, सोशल और नेचर की पूजा बचपन से ही समाहित है।'
याद आता है लकड़ी के कठौत में बनने वाला ठेकुआ
छठ और ठेकुआ, जैसे एक दूसरे के पर्याय हैं। पंकज बताते हैं, 'पूजा में घर पर ठेकुआ बनता है, जो लकड़ी के कठौत में बनाया जाता था। लकड़ी के बर्तनों में आटा गूंथा जाता है। इसमें पवित्रता का खास खयाल रखा जाता है। इसमें नहाय, खाय और रसियाव रोटी जैसी रस्में होती हैं। नहाय खाय में स्नान करके खुद को और घर को शुद्ध करते हैं और फिर सात्विक भोजन किया जाता है। रसियाव रोटी को खरना या लोहंडा भी कहते हैं। इस दिन पूरा निर्जला उपवास होता है। गुड़ और दूध से बनी खीर को रसियाव कहते हैं, सूर्यास्त के बाद इसे खाया जाता है, मगर पहले भगवान सूर्य और छठी मैया को प्रसाद चढ़ाया जाता है।'
पंकज त्रपाठी बोले- शूटिंग की व्यस्तता के बावजूद छठ के दर्शन जरूरी
वे कहते हैं, 'आज जब मैं मुंबई में हूं तो छठ की यादें अक्सर ताजा हो जाती हैं। हमारे खेत में गन्ना नहीं होता था, तो हम आसपास के लोगों से इकट्ठा करते थे। गांव में त्योहार का जो उत्साह और अपनापन होता था, वह आज भी दिल में बसा है। पूरा गांव मिलकर घाट की सफाई करता, केले का पेड़ लगाता और सभी के चेहरों पर मुस्कान देखने लायक होती थी। मुंबई में छठ पूजा तो दिखती है, पर गांव का वह माहौल, वह लोग अब नजर नहीं आते। बचपन से लेकर 21 साल की उम्र तक मैंने अपने गांव में ही छठ मनाई है। हाल ही में जब अमेरिका के लोगों ने उनसे बधाई संदेश मांगा, तो उन्हें महसूस हुआ कि देश से दूर रहकर भी लोग अपनी संस्कृति को सहेज रहे हैं ताकि आने वाली पीढ़ी इसे जान सके। पूर्वांचल के लोगों ने छठ को वैश्विक पहचान दी है। चाहे अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया या न्यूजीलैंड हो, लोग वहां भी इसे पूरे उत्साह से मनाते हैं। जब भी मैं घर से दूर देश-विदेश में शूटिंग कर रहा होता हूं और छठ का समय आता है, तो मैं पास के किसी जलाशय तक जरूर पहुंचता हूं, ताकि दर्शन कर सकूं, क्योंकि छठ पूजा के लिए मंदिर नहीं, बल्कि पानी की जरूरत होती है।'
खेती-बाड़ी से धैर्य की ट्रेनिंग मिली
किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले पंकज आखिर में अपनी कठिन अभिनय यात्रा में छठ के अनुशासन, तपस्या और योगदान के बारे में बताते हैं। वह कहते हैं, 'हम जो होते हैं, उसमें हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य तो काम आते ही हैं। सिर्फ छठ ही नहीं किसानी भी। हम जब खेती-बाड़ी करते हैं, तो एक बीज को डालकर 20 दिन प्रतीक्षा करनी पड़ती है। उसके बाद ही पता चलता है कि ये ग्रो करेगा या नहीं? तो अभिनय में धीरज की ट्रेनिंग खेती-बाड़ी से ही मिली कि इंस्टैंट कुछ भी नहीं है कि आज ही प्रयास करो और आज ही आपको परिणाम मिले। आप फेवरेबल कंडीशन दे सकते हैं, परिणाम मिल जाएंगे। आप अभिनेता हैं, तो अपने क्राफ्ट पर काम कीजिए, रंगमंच कीजिए, आप बेहतर अभिनेता और बेहतर इंसान बनेंगे। परिणाम जब आने होंगे, तो आ जाएंगे।'
छठ महापर्व पर शुभकामनाएं देते हुए पंकज त्रिपाठी कहते हैं, 'मैं सभी के लिए शुभकामना देता हूं कि छठी मैया सभी के जीवन में खुशियां लाए, उनकी मनोकामना को पूरा करे। वे सभी उत्साह के साथ सपरिवार छठ पूजा में शामिल हों।
'छठ पर नए कपड़े और नए स्वेटर... याद आते हैं'
बिहार के गोपालगंज में पैदा हुए पंकज त्रिपाठी याद करते हुए कहते हैं, 'छठ से जुड़ी अनगिनत यादें हैं। हमारे गांव बेलसंड में जैसे ही छठ का पर्व आता, सर्दियों का आधिकारिक आगमन हो जाता था। एक रात पहले ही लोग कंबल और नए स्वेटर निकाल लेते थे। सुबह पूजा के समय नए कपड़े और नया स्वेटर पहनने का अलग ही उत्साह होता था। पंकज बताते हैं कि छठ असल में प्रकृति और सूर्य की उपासना का पर्व है। इसमें गन्ना, मूली, केला और कच्ची हल्दी जैसे मौसमी फल और कंदमूल प्रसाद में चढ़ाए जाते हैं। जो जिसके घर में उगता है, वही वह प्रसाद के रूप में बांटता है।'
'मेरे घर में केला होता था, तो मैं केला बांटता था'
पंकज हंसते हुए कहते हैं, 'मेरे घर में केला होता था, तो मैं केला बांटता था।' उनके मुताबिक, छठ का त्योहार सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और प्राकृतिक आभार भी है। डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा के पीछे यही भाव है कि सूर्य हैं, तभी जीवन है। दिवाली के तुरंत बाद शुरू होने वाला यह पर्व पूर्वांचल के लोगों के लिए गहरे जुड़ाव और घर वापसी की भावना लेकर आता है।
पंकज त्रिपाठी बोले- चंदे के पैसों से नाटक करते थे
अपनी अभिनय यात्रा के शुभारंभ के बारे में वे कहते हैं, 'मेरी नाटक की शुरुआत भी इसी छठ पूजा से हुई थी, क्योंकि गांव के लोग आते और चंदा देते थे। हम उन पैसों को इकट्ठा करके छठ के अगले दिन परफॉर्म किया करते थे। यही वजह है कि मेरे जीवन में कल्चरल, सोशल और नेचर की पूजा बचपन से ही समाहित है।'
याद आता है लकड़ी के कठौत में बनने वाला ठेकुआ
छठ और ठेकुआ, जैसे एक दूसरे के पर्याय हैं। पंकज बताते हैं, 'पूजा में घर पर ठेकुआ बनता है, जो लकड़ी के कठौत में बनाया जाता था। लकड़ी के बर्तनों में आटा गूंथा जाता है। इसमें पवित्रता का खास खयाल रखा जाता है। इसमें नहाय, खाय और रसियाव रोटी जैसी रस्में होती हैं। नहाय खाय में स्नान करके खुद को और घर को शुद्ध करते हैं और फिर सात्विक भोजन किया जाता है। रसियाव रोटी को खरना या लोहंडा भी कहते हैं। इस दिन पूरा निर्जला उपवास होता है। गुड़ और दूध से बनी खीर को रसियाव कहते हैं, सूर्यास्त के बाद इसे खाया जाता है, मगर पहले भगवान सूर्य और छठी मैया को प्रसाद चढ़ाया जाता है।'
पंकज त्रपाठी बोले- शूटिंग की व्यस्तता के बावजूद छठ के दर्शन जरूरी
वे कहते हैं, 'आज जब मैं मुंबई में हूं तो छठ की यादें अक्सर ताजा हो जाती हैं। हमारे खेत में गन्ना नहीं होता था, तो हम आसपास के लोगों से इकट्ठा करते थे। गांव में त्योहार का जो उत्साह और अपनापन होता था, वह आज भी दिल में बसा है। पूरा गांव मिलकर घाट की सफाई करता, केले का पेड़ लगाता और सभी के चेहरों पर मुस्कान देखने लायक होती थी। मुंबई में छठ पूजा तो दिखती है, पर गांव का वह माहौल, वह लोग अब नजर नहीं आते। बचपन से लेकर 21 साल की उम्र तक मैंने अपने गांव में ही छठ मनाई है। हाल ही में जब अमेरिका के लोगों ने उनसे बधाई संदेश मांगा, तो उन्हें महसूस हुआ कि देश से दूर रहकर भी लोग अपनी संस्कृति को सहेज रहे हैं ताकि आने वाली पीढ़ी इसे जान सके। पूर्वांचल के लोगों ने छठ को वैश्विक पहचान दी है। चाहे अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया या न्यूजीलैंड हो, लोग वहां भी इसे पूरे उत्साह से मनाते हैं। जब भी मैं घर से दूर देश-विदेश में शूटिंग कर रहा होता हूं और छठ का समय आता है, तो मैं पास के किसी जलाशय तक जरूर पहुंचता हूं, ताकि दर्शन कर सकूं, क्योंकि छठ पूजा के लिए मंदिर नहीं, बल्कि पानी की जरूरत होती है।'
खेती-बाड़ी से धैर्य की ट्रेनिंग मिली
किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले पंकज आखिर में अपनी कठिन अभिनय यात्रा में छठ के अनुशासन, तपस्या और योगदान के बारे में बताते हैं। वह कहते हैं, 'हम जो होते हैं, उसमें हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य तो काम आते ही हैं। सिर्फ छठ ही नहीं किसानी भी। हम जब खेती-बाड़ी करते हैं, तो एक बीज को डालकर 20 दिन प्रतीक्षा करनी पड़ती है। उसके बाद ही पता चलता है कि ये ग्रो करेगा या नहीं? तो अभिनय में धीरज की ट्रेनिंग खेती-बाड़ी से ही मिली कि इंस्टैंट कुछ भी नहीं है कि आज ही प्रयास करो और आज ही आपको परिणाम मिले। आप फेवरेबल कंडीशन दे सकते हैं, परिणाम मिल जाएंगे। आप अभिनेता हैं, तो अपने क्राफ्ट पर काम कीजिए, रंगमंच कीजिए, आप बेहतर अभिनेता और बेहतर इंसान बनेंगे। परिणाम जब आने होंगे, तो आ जाएंगे।'
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