पाकिस्तान ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ग़ज़ा शांति योजना का समर्थन किया था. लेकिन प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ का यह रुख़ पाकिस्तानियों को बहुत पसंद नहीं आया.
यहाँ तक कि पाकिस्तान के पूर्व डिप्लोमैट भी इस पर सवाल उठा रहे हैं.
ऐसे में पाकिस्तान की सरकार भी अब बचाव की मुद्रा में आ गई है. पाकिस्तान के विदेश मंत्री और उपप्रधानमंत्री इसहाक़ डार ने कहा है कि ट्रंप ने ग़ज़ा में युद्ध बंद कराने के लिए अपनी योजना के जो 20 पॉइंट्स पेश किए हैं, वे उस ड्राफ्ट डॉक्यूमेंट की लाइन पर नहीं हैं, जो मुस्लिम बहुल देशों के समक्ष पेश किए गए थे.
डार ने पिछले हफ़्ते शुक्रवार को कहा था, ''मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि ट्रंप ने जो 20 पॉइंट्स सार्वजनिक किए हैं, वे अलग हैं. ड्राफ्ट में जो 20 पॉइंट्स थे, उनमें बदलाव किए गए हैं.''
हालांकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने ट्रंप के 20 पॉइंट्स सार्वजनिक होने से पहले ही इसके समर्थन की घोषणा कर दी थी और अमेरिकी राष्ट्रपति की सराहना की थी.
यहाँ तक कि ट्रंप ने भी 30 सितंबर को ही घोषणा कर दी थी कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और फील्ड मार्शल पूरी तरह से ग़ज़ा में उनकी शांति योजना के साथ खड़े हैं. ट्रंप की इस घोषणा से ठीक पहले व्हाइट हाउस में शहबाज़ शरीफ़ और फील्ड मार्शल आसिम मुनीर की राष्ट्रपति ट्रंप से मुलाक़ात हुई थी.

अमेरिका में पाकिस्तान की राजदूत रहीं मलीहा लोधी मानती हैं कि ट्रंप की ग़ज़ा शांति योजना का समर्थन पाकिस्तान का इसराइल पर लंबे समय से जो रुख़ रहा है, उसके ख़िलाफ़ है.
मलीहा लोधी ने जर्मन प्रसारक डीडब्ल्यू से कहा, ''पाकिस्तान में इस पर प्रतिक्रिया नकारात्मक रही है. ट्रंप की ग़ज़ा शांति योजना में बहुत अस्पष्टता है और कई चीज़ें इसराइल के पक्ष में हैं. इसमें इसराइली क़ब्ज़े को ख़त्म करने के लिए कोई प्रतिबद्धता नहीं है. इसीलिए यहाँ के लोग और कई राजनीतिक पार्टियां इसके ख़िलाफ़ हैं.''
ट्रंप के 20 पॉइंट्स में 15वाँ पॉइंट है- ग़ज़ा की सुरक्षा और वहाँ की पुलिस को प्रशिक्षित करने के लिए इंटरनेशनल स्टेबलाइज़ेशन फोर्स (आईएसएफ़) की तैनाती.
ऐसे में पाकिस्तान के भीतर सवाल उठ रहा है कि क्या पाकिस्तान भी आईएसएफ़ में अपनी आर्मी को भेजेगा? अगर पाकिस्तान को आईएसएफ़ में अपनी आर्मी भेजने के लिए कहा जाएगा तो क्या करेगा?
मलीहा लोधी ने डीडब्ल्यू से कहा, ''मेरा मानना है कि पाकिस्तान को यहां बहुत ही सतर्क रहना चाहिए. ख़ास करके तब जब उसे अपनी आर्मी भेजने के लिए कहा जाए. अगर आईएसएफ़ को यह भी जिम्मेदारी दी जाती है कि हमास के पास सारे हथियारों को नष्ट करे, या शांति कायम रखने में इसराइल की मदद करे और उसके कथित सुरक्षा घेरे को बनाए रखने में भूमिका निभाए तो यह पाकिस्तान के लोगों को स्वीकार्य नहीं होगा.''
पाकिस्तान के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार डॉन में मलीहा लोधी ने लिखा है, ''आईएसएफ़ को लेकर सारी जानकारी अभी सामने आई नहीं है. क्या आईएसएफ़ की भूमिका निरस्त्रीकरण में भी होगी? इसकी भूमिका को स्पष्ट करना होगा और साथ ही सहमति बनानी होगी.''
''ट्रंप के प्लान में कहा गया है कि सीमावर्ती क्षेत्रों को सुरक्षित बनाने के लिए आईएसएफ़ इसराइल और मिस्र के साथ मिलकर काम करेगा. पाकिस्तान को इस पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि कहा जा रहा है कि वह इस फोर्स में शामिल होने पर विचार कर रहा है. प्लान में यह भी कहा गया है कि ग़ज़ा में हथियारों को आने से रोकना होगा.''
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ट्रंप की ग़ज़ा शांति योजना का पाकिस्तान जमात-ए-इस्लामी ने खुलकर विरोध किया है. पिछले हफ़्ते जमात-ए-इस्लामी के अमीर हाफ़िज़ नईमुर रहमान ने कहा कि ट्रंप की घोषणा उपनिवेशवाद को फिर से स्थापित करने के लिए हैं.
रहमान ने पाकिस्तान की सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि सरकार ने इसराइल को मान्यता देने की ओर एक क़दम भी आगे बढ़ाया तो इसका हर स्तर पर विरोध होगा.
पिछले हफ़्ते गुरुवार को लाहौर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए रहमान ने कहा था, ''अगर कोई भी क़ायद-ए-आज़म और 25 करोड़ पाकिस्तानियों के सैद्धांतिक रुख़ के ख़िलाफ़ जाता है तो इसे उत्पीड़ित फ़लस्तीनियों के ख़ून से सौदेबाज़ी और इसराइल की तरफ़दारी के रूप में देखा जाएगा.''
दूसरी तरफ़, जमात उलेमा-ए-इस्लाम-फ़ज़्ल (जेयूआई-एफ़) के प्रमुख मौलाना फ़ज़लुर रहमान ने पिछले हफ़्ते मंगलवार को ट्रंप की 20 पॉइंट्स शांति योजना को ख़ारिज कर दिया था. रहमान ने कहा था कि यह इसराइल के विस्तार का फॉर्मूला बन सकता है न कि इससे फ़लस्तीनी स्टेट को मान्यता मिलेगी और यरूशलम आज़ाद होगा.
मौलाना फ़ज़लुर रहमान ने ग़ज़ा में ट्रंप की शांति योजना पर पाकिस्तान के रुख़ को लेकर कहा, ''प्रधानमंत्री और फील्ड मार्शल को अपने पहले के बयान देख लेने चाहिए. इसी से पता चल जाएगा कि इनके रुख़ में कितने विरोधाभास हैं.''
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) ने भी ट्रंप की योजना का विरोध किया है. पीटीआई के सूचना सचिव शेख़ वक़ास अकरम ने एक्स पर लिखा, ''यरुशलम को इसराइल की राजधानी के रूप में मान्यता देना और सीरिया के गोलान हाइट्स को इसराइली क्षेत्र के तौर पर स्वीकार करना, अंतरराष्ट्रीय नियमों और यूएन के प्रस्ताव का खुला उल्लंघन है.''
कहा जा रहा है कि पाकिस्तान की मौजूदा सरकार ट्रंप को ख़ुश करने के लिए वैसे क़दम भी उठा रही है, जिससे वहाँ की राजनीति में उबाल आ सकता है. पाकिस्तान पहले ही ट्रंप को शांति का नोबेल सम्मान देने की वकालत कर चुका है. ऐसा तब है, जब ट्रंप ने ग़ज़ा में इसराइल की हर सैन्य कार्रवाई का न केवल समर्थन किया है बल्कि हथियार भी मुहैया कराए हैं.
पिछले महीने पाकिस्तान की जानी-मानी रक्षा विश्लेषक आयशा सिद्दीक़ा ने मुझसे कहा था कि शहबाज़ शरीफ़ या वहाँ की सेना की ट्रंप को इसराइल के मामले में ख़ुश करने की कोशिश एक दायरे से बाहर नहीं जा सकती है.
आयशा सिद्दीक़ा ने कहा था, ''पाकिस्तान के लोग फ़लस्तीनियों के मामले में अरब के मुसलमानों से भी ज़्यादा अडिग हैं. अगर पाकिस्तान की कोई भी सरकार ज़रा भी इसराइल के पक्ष में झुकती दिखेगी तो उसके लिए सत्ता में बने रहना मुश्किल हो सकता है.''
ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में अब्राहम अकॉर्ड के ज़रिए यूएई, मोरक्को, सूडान और बहरीन से इसराइल को मान्यता दिलाई थी. दूसरी तरफ़ मिस्र ने 1979 और जॉर्डन ने 1994 में इसराइल को मान्यता दी थी. लेकिन पाकिस्तान इसराइल के मामले में बहुत आक्रामक रहा है और वहाँ की सरकारों के लिए चुनावी राजनीति में यह आक्रामकता रास भी आती है.
कहा जा रहा है कि इसराइल और ईरान में जंग से पाकिस्तान की अहमियत बढ़ गई है.
पश्चिम चाहेगा कि पाकिस्तान इस मामले में ईरान को किसी भी तरह से मदद न करे और ईरान चाहेगा कि पाकिस्तान उसके साथ रहे. पाकिस्तान शीत युद्ध में अमेरिकी खेमे में था और उसके लिए ईरान के साथ जाना इतना आसान नहीं है.
पाकिस्तान का इसराइल से कोई विवाद या संघर्ष नहीं रहा है, तब भी उसने इसराइल को एक राष्ट्र के रूप में स्वीकार नहीं किया है. पाकिस्तान ऐसा अरब के देशों के साथ इस्लामिक एकता दिखाने के लिए करता है.
लेकिन जब अरब के देश ही इसराइल के क़रीब जाने लगे, तो पाकिस्तान को इसराइल के साथ संबंध क़ायम करने में क्या दिक़्क़त है?
इसका जवाब 2020 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने दिया था.
इमरान ख़ान ने कहा था, ''बाक़ी देश चाहे जो भी करें, हमारा रुख़ स्पष्ट है. मोहम्मद अली जिन्ना ने 1948 में कहा था- जब तक फ़लस्तीनियों को उनका अधिकार नहीं मिल जाता, तब तक इसराइल को हम स्वीकार नहीं कर सकते.''
कई लोग इस बात की वकालत करते हैं कि अगर पाकिस्तान इसराइल को मान्यता देता है, तो अमेरिका से उसके संबंध अच्छे हो सकते हैं. लेकिन पाकिस्तान के आम लोगों की इसराइल विरोधी भावना अक्सर सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन के रूप में दिखती है.
पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने कहा था कि अगर इसराइल और फ़लस्तीन किसी शांति समझौते पर पहुँच जाते हैं, तो इसराइल के साथ राजनयिक संबंध क़ायम करने में कोई दिक़्क़त नहीं है.
2005 में पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री ख़ुर्शीद कसूरी और इसराइल के तत्कालीन विदेश मंत्री सिलवान शालोम की इस्तांबुल में मुलाक़ात हुई थी.
कहा जाता है कि यह मुलाक़ात अर्दोआन ने करवाई थी. पाकिस्तान में इस मुलाक़ात को लेकर काफ़ी हंगामा हुआ था.
सिलवान शालोम ने ख़ुर्शीद कसूरी से मुलाक़ात के बाद कहा था, ''हमारी बातचीत काफ़ी अहम है. यह बातचीत न केवल पाकिस्तान से हमारे संबंधों के लिए मायने रखती है बल्कि पूरी मुस्लिम दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है. अरब के सभी मुस्लिम देशों के साथ हम पाकिस्तान से भी राजनयिक संबंध चाहते हैं.''
पाकिस्तान में इसराइल को दुश्मन के रूप में भले देखा जाता है लेकिन इसराइल में पाकिस्तान को लेकर सड़कों पर इस तरह का ग़ुस्सा देखने को नहीं मिलता है. 2018 में इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू भारत के दौरे पर आए थे.
इस दौरे में नेतन्याहू ने कहा था, ''इसराइल पाकिस्तान का दुश्मन नहीं है और पाकिस्तान को भी हमारा दुश्मन नहीं होना चाहिए.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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